प्लास्टिक से बनी घरेलू उपयोग की चीजें देने में पिछले 65 सालों से बाजार में अपनी धाक और साख जमाए हुए है ‘टपरवेयर’। यह एक ऐसा ब्रांड है, जिसे प्रॉडक्शन, सेल्स और मार्केटिंग तथा बिजनेस मैनेजमेंट के क्षेत्र में अजूबा माना जाता है। अर्ल सिलस टपर नाम के एक अमेरिकी उद्यमी द्वारा स्थापित यह ऐसी प्रोडक्ट रेंज है, जो बहुत मुश्किल हालात में बनी और कड़ी मेहनत के बाद बाजार में अपनी पहचान बना पाई है। प्राइस और क्वालिटी दोनों ही बेहतर होने की वजह से टपरवेयर ब्रांड पर हमेशा एलीट क्लास (संपन्न वर्ग) का ठप्पा लगाया गया; लेकिन अब यह मिथक टूट गया है। नई सदी में टपरवेयर और इस जैसे कई अन्य प्लास्टिक स्टोरेज कंटेनर्स मध्यमवर्गीय परिवारों की भी पहली पसंद बन गए हैं। अपनी लाइफ टाइम उपयोगिता, सुंदरता, सुरक्षा और स्वच्छता के चलते टपरवेयर के प्रोडक्ट को यह मुकाम दिलाने के लिए मार्केटिंग की दुनिया के सबसे नए व कारगर हथियार डायरेक्टर मार्केटिंग का सहारा लिया गया है।

The Tupperware logo is in bold Tahoma font. It is strong and clear, and fairly gender neutral. It appears in four main colors, Black used for print The Tupperware symbol is used mainly for the international market but also makes appearances in print in America. The symbol is round and on the web and in print Tupperware uses a non-bold form of the Tahoma font to list and describe it’s products. It changes size and color to indicate primacy or hierarchy.

10 साल की उम्र में एक संकल्प

टपरवेयर के जन्म और इसकी सफलता की कहानी जानने के लिए हमें एक सदी पीछे लौटना पड़ेगा। यह वह दौर था, जब रेल की पटरियों के साथ औद्योगिक क्रांति तेजी से दुनिया में फैल रही थी। अमेरिका के न्यू हैंपशायर में अंग्रेजों द्वारा बसाई गई 13 ब्रिटिश कॉलोनियों में से एक न्यू इंग्लैंड/ग्रेनाइट स्टेट में एक गरीब किसान रहता था। 28 जुलाई, 1907 को उसके घर बेटा जनमा, जिसका नाम अर्ल सिलस टपर रखा गया। यह बच्चा बेहद उद्यमी तथा हमेशा सबसे अलग करने की कोशिश में जुटा रहता था। महज 10 साल की उम्र में अर्ल टपर ने एक संकल्प किया कि वह अपने परिवार को गरीबी से मुक्त करेगा और कुछ ऐसा बड़ा काम करेगा कि दुनिया उसे सदियों तक याद रखे। बचपन में उसने अपने खेत और घर में बनी खाने-पीने की चीजें घर-घर जाकर बेचीं। युवा होने पर छोटी-छोटी नौकरियाँ की, लेकिन संघर्ष खत्म होने की बजाय बढ़ता ही चला गया। विषम हालात की वजह से वह ज्यादा पढ़ भी नहीं पाया। 1925 में स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद अर्ल टपर ने पत्राचार से पढ़ाई जारी रखी और एडवरटाइजिंग का एक कोर्स किया।

इसी कोर्स के दौरान उनके दिमाग में यह बात बैठ गई कि विज्ञापन के जरिए सबकुछ बेचा जा सकता है। टपर अपने साथ हमेशा एक नोटबुक रखते थे और उनके दिमाग में जो भी नया विचार, आइडिया या प्लान आता, वे उसे नोट कर लेते थे। उनकी नोटबुक कई तरह के आविष्कारों से भरी थी। उनमें बेल्ट में क्लिप से लगाई जानेवाली कंघी, बिना सिलवटों की पतलून जैसे दर्जनों नई बातें शामिल थीं। उनकी सोच थी कि कुछ ऐसा बनाया जाए, जिससे लोगों का जीवन भी आसान बने और उनकी अपनी आय बढ़े।

माली बने, दिवालिया हुए, फिर जागा इंजीनियर

धनी बनने के लिए टपर ने कई बार अपने बनाई डिजाइन बेचने की कोशिश की, लेकिन कोई खरीदार नहीं मिला। आखिरकार उन्होंने अपने पिता की तरह पेड़ों व बगीचों की देखभाल से जुड़ा कारोबार शुरू किया; लेकिन 1930 के बाद अमेरिका में आए मंदी के दौर में वह दिवालिया हो गए। जो कुछ जमा-पूँजी थी, सब खत्म हो गई। इसी दौरान उनकी शादी हो गई। उनकी खुशकिस्मती थी कि 1936 में घोर निराशा या वैश्विक मंदी के दौर में उन्हें मैसाचुसेट्स के लिओमिनिस्टर में डू-पॉट नाम की एक प्लास्टिक फैक्टरी में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई। अमेरिका के इस इलाके में बहुत सी प्लास्टिक फैक्टरियाँ थीं, जहाँ कंघियाँ बनती थीं। यहाँ आने के बाद टपर के अंदर का इंजीनियर फिर जाग उठा। करीब एक साल तक विस्केलाइड नाम के एक प्लांट में काम करने के बाद टपर ने कुछ पुरानी प्लास्टिक मोल्डिंग मशीनें खरीदीं और कुछ नया करने में जुट गए। सबसे पहले उन्होंने प्लास्टिक के मोती, सिगरेट और सोप बॉक्स बनाकर बेचना शुरू किए।

अपने उद्यम को कारोबार की शक्ल देने के लिए सन् 1938 में अर्ल टपर ने एक प्लास्टिक कंपनी की स्थापना की। इसके बाद शुरू हुआ दूसरा विश्व युद्ध, जो अच्छे मौके लेकर आया। उनके बनाए रोजमर्रा के काम आनेवाली चीजों के डिब्बे मोर्चे पर जानेवाले सैनिकों को अच्छे लगे। इसी दौर में एक दिन उन्हें अपनी कंपनी से पॉलिइथीलीन का एक ब्लॉक मिला, जिसे प्लास्टिक की चीजों के लिए बतौर कच्चे माल की जगह उपयोग किया जाना था। परेशानी यह थी कि मोल्डिंग का जो तरीका कंपनी अपना रही थी, वह इस पर सफल नहीं था। टपर ने इसके बारे में कंपनी प्रबंधन को बताया, लेकिन जिम्मेदार लोग जोखिम उठाने को राजी नहीं हुए। नतीजा यह हुआ कि टपर ने अपनी राह खुद चलने का फैसला किया। इसी क्रम में 1946 में सबसे पहले उन्होंने एक प्याला बनाया और उसे वंडर बॉउल नाम दिया, क्योंकि इसमें एक ऐसी सील थी, जो इसके अंदर रखी सामग्री को खराब नहीं होने देती थी। इसी सील को बर्पिंग सील नाम दिया गया, जिसे टपर ने पेटेंट करवा लिया। टपरवेयर ब्रांड का सबसे पहला प्रोडक्ट यह बॉउल और सील अर्ल टपर के जीवन के सबसे क्रांतिकारी आविष्कार साबित हुए। शुरुआत में बर्पिंग सीलवाले उनके बनाए डिब्बे नहीं बिके। हालाँकि उन्होंने इसकी बिक्री के लिए न्यूयार्क के मशहूर फिफ्थ एवेन्यू इलाके में शोरूम भी बनाया और खूब प्रचार भी किया।

एक बच्चे की माँ ने सिखाई डायरेक्टर मार्केटिंग

टपरवेयर प्रोडक्ट की बिक्री के लिए डायरेक्टर मार्केटिंग का एक उपयुक्त समाधान पार्टी के जरिए ब्रॉउनी वाइज नाम की एक महिला ने खोजा। उसके पास न तो कोई एम.बी.ए. की डिग्री थी और न ही कोई मार्केटिंग ट्रेनिंग, ऊपर से वह एक बच्चे की माँ भी थी। बावजूद इसके उन्होंने बेबी-बूम और अमेरिका में टपरवेयर की सबसे ज्यादा बिक्री की थी। अर्ल टपर को जब पता चला तो उन्होंने ब्रॉउनी वाइज को मैसाचुसेट्स बुलाया और उसके फॉर्मूले पर अमल करते हुए टपरवेयर प्रोडक्ट की बिक्री सिर्फ पार्टियों के जरिए करने का फैसला किया। आगे चलकर ब्रॉउनी वाइज कंपनी में वाइस प्रेसीडेंट के ओहदे तक पहुँची। इन दोनों की जोड़ी कमाल की थी। टपर को प्लास्टिक और मशीनों से प्यार था, तो वाइज को लोगों और पार्टियों से। नतीजा हुआ कि टपरवेयर प्रोडक्ट्स की बिक्री तेजी से बढ़ने लगी और यह ब्रांड अमेरिका के बाद इंग्लैंड के रास्ते यूरोप में घुसा और फिर दुनिया भर में फैल गया। काम बढ़ा तो मुनाफा और हैसियत भी बढ़ गई। कंपनी का मुख्यालय भी मैसाचुसेट्स के बजाय फ्लोरिडा के ऑरलैंडो में शिफ्ट किया गया।

सफलता को सहेज न सके जनमदाता

वर्ष 1960 के आते-आते टपरवेयर प्रोडक्ट्स और इसके बहाने होनेवाली पार्टियाँ दुनिया भर में मशहूर होने लगीं। इसी दौरान पार्टियों के खर्च पर हुए विवाद के कारण अर्ल टपर और वाइज में मतभेद हो गए। नतीजा यह हुआ कि अर्ल टपर ने वाइज को नौकरी से निकाल दिया। अब वह अकेले हो गए। अर्ल टपर के पाँच बच्चे थे, लेकिन कंपनी के मालिक वह अकेले थे। कहते हैं कि ऐसे माहौल में कुछ लोगों ने उन्हें डरा दिया कि अपनी कंपनी को पब्लिक कंपनी बना लो, नहीं तो सरकार तुम्हें टैक्स चोरी के मामले में फँसा देगी। वह इसके लिए तैयार नहीं थे। सन् 1958 में उन्होंने अपनी कंपनी को मात्र 1 करोड़ 60 लाख डॉलर में एक अन्य कंपनी रैक्सल को बेच दिया, जो आगे चलकर डार्ट इंडस्ट्रीज के नाम से जानी गई। तनाव में परिवार भी उनका साथ छोड़ गया। उनका तलाक हो गया और टैक्स की मार से बचने के लिए वे मध्य अमेरिका के कोस्टारिका द्वीप पर रहने चले गए। इस महान् उद्यमी-आविष्कारक के लिए यह जीवन का सबसे बुरा दौर था, क्योंकि शून्य से शिखर पर पहुँचने के बाद वह अपनी सफलता को सहेजकर नहीं रख सके थे। सन् 1984 में उनका निधन हो गया, लेकिन आज भी उनके नाम पर ही इन उत्पादों को ‘टपरवेयर’ कहा जाता है। आगे चलकर डार्ट कंपनी एक अन्य कंपनी क्राफ्टको में विलय हो गई और डार्ट ऐंड क्राफ्ट नाम की एक नई कंपनी जनमी। इसके बाद और बदलाव हुए, जिनमें डार्ट ऐंड क्राफ्ट परमार्क इंटरनेशनल के साथ जुड़ गई और 1996 में परमार्क को इलिनोड्स टूल वर्क नाम की एक अन्य कंपनी ने खरीद लिया।

इन तमाम उतार-चढ़ावों के टपरवेयर ब्रांड का सफल सफर जारी है।  प्लास्टिक उत्पादों से आगे जाकर नए क्षेत्रों में विस्तार की रणनीति के तहत टपरवेयर ने वर्ष 2001 में अमेरिका के डलास आधारित ब्यूटी कंट्रोल को अधिग्रहित किया और इसके बाद सन् 2005 में इंटरनेशनल ब्यूटी ग्रुप को खरीदा। दिसंबर 2005 में टपरवेयर कॉरपोरेशन का नाम बदलकर टपरवेयर ब्रांड कॉरपोरेशन कर दिया गया। इसके पीछे कंपनी का उद्देश्य प्रोडक्ट रेंज को बढ़ाना था। इसके बाद टपरवेयर मल्टी ब्रांड, मल्टी कैटेगरी डायरेक्ट सेल्स कंपनी बन गई। यह एक तरह से एक अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनी एम-वे की राह पर चलने जैसा था।

60 साल से जारी है टपरवेयर पार्टी

पिछले 60 साल से टपरवेयर ब्रांड महिलाओं को स्वावलंबी बनाकर उन्हें स्वतंत्र कारोबार के मौके उपलब्ध करा रहा है। इसके पीछे यदि कोई सबसे बड़ी शक्ति है तो वह है महिलाओं की टपरवेयर पार्टियाँ। टपरवेयर के जनम के करीब सात साल बाद शुरू हुई ये पार्टियाँ आज भी प्रासंगिक, प्रभावी और डायरेक्ट मार्केटिंग का सबसे बड़ा हथियार हैं। इन पार्टियों का उद्देश्य है एक अनौपचारिक और हँसी-खुशी के माहौल में भावी ग्राहकों को टपरवेयर प्रोडक्ट्स से रूबरू कराया जाए। ये पार्टियाँ घर, बगीचे, ऑफिस, स्कूल या किसी भी सार्वजनिक स्थान पर आयोजित की जा सकती हैं, ताकि उन्हें ऐसा माहौल मिले कि वे प्रोडक्ट को छूकर और यहाँ तक कि मौके पर ही उपयोग करके परख सकें। टपरवेयर पार्टी की मेजबानी करने के लिए पहले प्रोडक्ट डिस्ट्रिब्यूटर बनना होता है। इसके बाद मेजबान अपने परिचितों, दोस्तों, पड़ोसियों या रिश्तेदारों को किसी भी बहाने आमंत्रित कर उन्हें टपरवेयर प्रोडक्ट दिखा सकते हैं और बेच सकते हैं। हालाँकि यह बहुत ही सहज प्रक्रिया है और महिलाएँ बिना किसी बड़ी औपचारिकता के आसानी से कंसल्टेंट बनकर इससे जुड़ सकती हैं। पार्टी मेजबान को उसकी बिक्री के आधार पर रिवार्ड के रूप में मुफ्त उत्पाद भी देती है। इसके बाद मेजबान जैसे-जैसे अपनी बिक्री बढ़ाता जाता है, उसका दर्जा बढ़ता जाता है। एक महिला उद्यमी मैनेजर, स्टार मैनेजर, डायरेक्टर, लेगेसी एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर तक पहुँच सकती है। अमेरिका में शुरू हुआ यह डिस्ट्रिब्यूटरशिप सिस्टम आज सारी दुनिया में लोकप्रिय है। यह काफी लचीला, कमीशन आधारित सिस्टम है, जिससे जुड़कर कंसल्टेंट अच्छा रिवार्ड पा सकते हैं।

24 लाख लोगों का टपरवेयर आंदोलन

आज दुनिया भर में 100 से ज्यादा देशों में 24 लाख से ज्यादा लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से टपरवेयर ब्रांड के प्रोडक्ट्स बेच रहे हैं। जोश और उत्साह से भरी मेल-मिलापवाली पार्टियों के जरिए घर के काम आनेवाली जरूरी चीजों की डायरेक्ट मार्केटिंग का यह सबसे अच्छा उदाहरण है। विश्वास और जानकारी से भरी इतनी बड़ी सेल्स फोर्स दुनिया की किसी और कंपनी के पास नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि इस सेल्स फोर्स की सबसे बड़ी ताकत महिलाएँ हैं। महिलाओं को जाग्रत और स्वावलंबी बनाने का यह एक महान् कॉरपोरेट मिशन कहा जा सकता है। आँकड़े बताते हैं कि सन् 2008 में टपरवेयर का सालाना टर्नओवर 1 लाख करोड़ रुपए (2 अरब अमेरिकी डॉलर) से ज्यादा था। चालू वित्तवर्ष में मंदी के बावजूद इसमें बहुत ज्यादा गिरावट नहीं देखी गई है।

भारत में टपरवेयर

भारत में टपरवेयर का आगमन सन् 1996 में हुआ। इससे पहले इसके उत्पाद जानकार लोग विदेशों से लाया या मँगाया करते थे। भारत में भी इसकी हाई क्वालिटी और लाइफ टाइम वारंटी ने महिला ग्राहकों को सबसे ज्यादा लुभाया है। इसके अलावा टपरवेयर डिस्ट्रिब्यूटर बनकर अपने खाली समय में पैसा कमाने का फंडा भी शहरी महिलाओं ने हाथोहाथ लिया है। वर्तमान में आशा गुप्ता, टपरवेयर इंडिया की प्रबंध निदेशक हैं और उनके नेतृत्व में देश की 40 हजार से ज्यादा महिलाएँ टपरवेयर ब्रांड को एक आंदोलन की तरह चला रही हैं। कंपनी का गुड़गाँव में हेड ऑफिस और मुंबई, चेन्नई, कोलकाता व चंडीगढ़ में रीजनल ऑफिस है। भारत में टपरवेयर के 100 फीसदी फूड ग्रेड वर्जिन प्लास्टिक से बने प्रोडक्ट्स अब छोटे शहरों में भी लोकप्रिय हो रहे हैं।

सर्वे बताते हैं कि समझदार माँएँ अपनी बेटियों को शादी के तोहफे में टपरवेयर के टिकाऊ, साफ-सुथरे, सुंदर और सुरक्षित प्रोडक्ट्स देकर उनके किचन की शान बढ़ा रही हैं।

Dip..Dip..Dip !

A hot cup of water, a hand- sewn silk bag with just the right amount of leaves and the perfect flavour. Your favourite cuppa is ready, wherever you may be. Around in 1908,  A coffee shop merchant of New York Thomas Sullivan successfully marketed tea bags and introduced the world to a new convenience and luxury. So sit back, take a sip and get refreshed for your next big idea,

Dip by dip ! THINK FRESH !

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